गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
बलीहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताई ।।
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान
शीश दियो गुरु मिले तो भी सस्ता जान ।।
सब धरती कागज करू लेखनी सब वनराई
सात समुद्र की मशी करू गुरु गुण लिखा न जाय ।।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए
औरन को शीतल करे आप हु शीतल होय ।।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को साया नही फल लागे अति दूर ।।
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाई
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुहाए।।
बुरा जो देखन में चला बुरा न मिलिया कोई
जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोई ।।
दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे कोई
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे होई ।।
माटी कहे कुंभार से तु क्यूं रोंदे मोय
एक दिन ऐसा आयेगा में रोंदुगी तोय।।
पानी केरा बुदबुदा असमानस की जात
देखत ही चुप जायेगा जो सारा परभात ।।
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोई
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई ।।
मालिन आवत देख के कलीयन करे पुकार
फूले फूले चुन लिए कली हमारी बार ।।
मन के मते न चालिए मन के मते अनेक
जो मन पर अवसार नही हे साधु कोई एक ।।
मनवा तो पंछी भया उड़के चला आकाश
ऊपर ही ते गिर पड़ा या माया के पास ।।
माया मुई ना मन मुआ मरी मरी गया शरीर
आशा तृष्णा ना मुई यूं कह गया कबीर ।।
कबीर माया पापीणी हरिशु करे हराम
मुकी कढ़ाई कुमति की कहा न देई राम ।।
मेरा मुजमे कुछ नही जो कुछ ही सो तेरा
तेरा तुजाको सोप दे क्या लागे हे मेरा ।।
तेरा साई तुजमे हे ज्यों पहपन में बात
कस्तूरी का हिरण ज्यों फिर फिर ढूंढे घास ।।
कबीरा गर्व न कीजिए कबहू ना हसिये कोई
अजय नाव समुद्र में का जाने का होई ।।
करता था तो क्यों रहा अब करी क्यों पछताय
बोए पेड़ बबुल का अमवा कहा से पाय ।।
कबीरा सो धन संचिए जो आगे को होई
शीश चढ़ाए पार ले जाते न देखिया कोई ।।
जीही घट प्रीत ना प्रेम रस उन्ही रस ना ही राम
ते नर इस संसार में उपज भए बेकाम ।।
काल करे सो आज कर आज करे सो अब
पल में परलय होएगी बहुरी करेगा कब ।।
ज्यों तिल माही तेल हे ज्यों चकमक में आग
तेरा साई तुजमे हे जाग सके तो जाग ।।
जहा दया तहां धर्म हे जहा लोभ वहा पाप
जहा क्रोध वहा काल हे जहा क्षमा वहा आप ।।
जो घट प्रेम न संचरे सो घट जान समान
जैसे खाल लुहार की सास लेत बिनु प्राण ।।
जल में बसे कामोदिनी चंदा बसे आकाश
जो हे जाको भावता सो ताहि के पास ।।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ग्यान
मोल करो तलवार का पड़ी रहेन दो म्यान ।।
जग में बैरी कोई नही जो मन शीतल होय
ये आपा तो टाल दे दया करे सब कोई ।।
ए दिन गए अकारथी संगत भई न संत
प्रेम बिना पशु जीव ना शक्ति बिना भगवंत ।।
तीरथ गए से एक फल संत मिले फल चार
संतगुरु मिले अधिक फल कहे कबीर विचार ।।
तन को जोगी सब करे मन को बिरला कोई
सहेजे सब विधि पाइए जो मन जोगी होई ।।
प्रेम ना बारी उपजे प्रेम ना हाट बिकाय
राजा परजा जोही रुचे शीश देय ले जाय ।।
जो घर साधु ना पुजये घर की सेवा नाही
ते घर मरघट सा लगे भूत बसे दिन माही ।।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुहाय
सार सार को गही रहे थोथा देय उड़ाए ।।
पाछे दिन पाछे गए हरी से कियो न हेत
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ।।
उजला कपड़ा पहेन के पान सुपारी खाही
एक हरी के नाम बिन बांधे जमकुरी नाही ।।
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